Saturday, 8 November 2014

वेदना नारी की





अंधेरो कि काली छाया से मुझको डर  लगता हे
रावन कि तिरछी नज़रों से ही मुझको डर लगता हे
 मेरा डर नजायज नहीं , जायज पहलू ले बैठा हे
वयवसाय करण कि आंधी  ने मुझे बोझ समझ  के रखा हे


 जीवन का आरम्भ हुआ , संघर्ष तभी से जारी हे
सम्मानो को लड़ती आई हर अबला हर नारी हे
दुःशाशन आबाद हुए जब जब  कान्हा की मांग बड़ी
संसद भी थी मोन पड़ी जब जब नारी बेमौत मरी


नारी तो मरती रहती हे अपने ही चौराए पे
कही दहेज़ और कही तो अपनों की मनमानी पे
कही तेज़ाबो की बूंदे उसका तो जीवन वारे हे
और कही अग्नि की लपटों से ही सवर्ग सिधारे हे  \\\\\\

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