Friday, 21 November 2014

राहे

हर राह को मै चाहू, हर मंजिल मुझको भाती है
मेरी कोई दिशा नहीं, सिर्फ हवा मुझे बहलाती है
प्रवाह जिधर भी तेज हुआ ,ते उधर निकल लेता हु मै
मांग जिधर भी तेज हुई, ते उधर खिसक लेता हु मै
मेरी आँखों के सपने हर पल पल पल पल बदले है
मेरे खवाबो के परिंदे ,आसमान में भटके हे
जाने की कोई राह नहीं ,बस आस लगाए बैठे हे
मन की बत्ती को बजाए ,जुगनू पे तो तरसे हे



काश काश के मंत्रो को मै  अब तक जबते आया हु
भेड़ चल के सम्मोहन से मै  खुद ना बच पाया हु
राह चुनी मेने ओ साहब जिसने मुझे मजबूर बनाया
अपने हाथो अपनी खुशियो का ही  मेने गला दबाया
काश तवज्जो दी होती मेने ही खुद की बातो को
तस्वीर अलग होगी मेरी सपनो की रातो को
नींद सुकून की मुझको आती साडी दुनिया मुझको भाती
जेब भले  ही छोटी   होती , सोच बड़ी तब रखता मै
अपनी राहे , अपनी मंज़िल खुद तभी तो बुनता मै।

No comments:

Post a Comment